अगर धनुर्विद्या में अद्वितीय अजेय बनना है, तो परशुराम को गुरु बनाना चाहिए। जमदग्नि के पुत्र परशुराम इक्कीस बार पूरी पृथ्वी का भ्रमण कर चुके हैं-परशुराम के बारे में यह जानकर कर्ण के मन में उनका शिष्य बनने की इच्छा हुई।
लेकिन अहंकारी और मदोन्मत्त राजवंशियों से जूझते हुए परशुराम ने तय कर लिया था कि विद्वान और विनम्र साधक के अलावा किसी को धनुर्विद्या नहीं सिखाएंगे। कथा जिस समय की है, उन दिनों तापस, कुशाग्र और विद्यावान लोगों को ही ब्राह्मण कहा जाता था।
कर्ण को तब तक न तो किसी ने ब्राह्मण स्वीकार किया था, और न ही क्षत्रिय। अपनी पहचान छिपाते हुए कर्ण ने परशुराम से गुरुदीक्षा ली। परशुराम कर्ण को धनुर्विद्या में पारंगत करते रहे।
एक दिन परशुराम कुछ थके से थे। वह कर्ण की गोद में सिर रखकर सो गए। तभी एक मधुमक्खी कहीं से आई और कर्ण की जांघ पर बैठकर काटने लगी। कर्ण ने सोचा कि थोड़ा भी हिला-डुला, तो गुरु की निद्रा टूट जाएगी। इसलिए वह बिना किसी गतिविधि के चुपचाप बैठे रहे।
उधर मधुमक्खी के लगातार दंश मारने के कारण कर्ण की जांघ से खून बहने लगा। खून परशुराम के गाल पर लगा, तो उनकी नींद खुल गई। वह अकस्मात उठ बैठे। उन्होंने आश्चर्य से कर्ण को देखा, तो पाया कि कर्ण क्षत्रिय हैं। कर्ण की नम्रता, साहस, गुरुभक्ति और धनुर्विद्या के प्रति लगाव को भी परशुराम ने अपने व्रत और अनुशासन की मर्यादा के आगे कोई महत्व नहीं दिया।
उन्होंने कर्ण को शाप दिया कि गुरु से गलत बोलकर शिक्षा प्राप्त करने के कारण जब भी उन्हें इस विद्या की सबसे ज्यादा आवश्यकता होगी, तभी इसका प्रयोग वह भूल जाएंगे। ऐसा ही महाभारत युद्ध के दौरान हुआ।
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